ओझल सी आंखे
तुम्हारी आंखें कह रही हैं
कल रात तुम भी सोये नहीं,
ओझल सी हैं आज आंखें तुम्हारी,
कल शब भर क्यों रहा एक सन्नाटा सा पास मेरे,
कल शब भर क्यों रहा एक गम़ सा साथ मेरे ,
कल जागता शब भर र्काइे ख़ास रहा,
मैं तो कई रातों से नहीं सोया हुं,
कोई था जो कल रात मेरे साथ जागता रहा,
क्यों कल कोई सोया नहीं?
हर रात रहा हूं अकेला जागता,
फिर क्यों कल कोई साथ में जागता रहा?
तुम्हारी आंखें कह रही हैं,
कल रात तुम भी सोये नहीं,
ओझल सी हैं आज आंखें तुम्हारी।
तुम मुझे पहचानती भी नहीं और मैं वाक़िफ़
तुम्हारी हर बात से,
तुम मुझे जानती भी नहीं और मैं वाक़िफ़
तुम्हारी हर पहचान से,
यहां तो रहती ही हैं ख़ुमारियां हर रात,
पर कल उधर भी थी कुछ ख़ुमारियां,
यहां तो हर रात होती हैं बातें तुम्हारी,
पर कल रात उधर क्यों हुई थी बातें हमारी,
ये सब तुम्हारी आंखें कह रही हैं,
कल रात तुम भी सोये नहीं
ओझल सी हैं आज आंखें तुम्हारी।
इधर तो चुभती ही हैं हर रात यादें,
कल एक रात चुभन वहां भी हुई थी,
यूं तो इकतरफा़ ही होती थीं यादें हर रात,
पर कल रात यहां भी हुई थी,
वहां भी हुई थी,
लिबास तुम्हारा ओढ़ कर,
सिरहाने पर रहता है यहां हर रात कोई,
कल रात तुम भी सोये नहीं,
वहां भी था क्या कल रात कोई?
ये सब तुम्हारी आंखें कह रही हैं,
कल रात तुम भी सोये नहीं
ओझल सी हैं आज आंखें तुम्हारी।
इधर तो हर रात दीद होता है तुम्हारा,
तुमने भी देखा था क्या कल रात वहां कोई?
इधर तुम्हारा साया मुझे सोने नहीं देता,
वहां भी था क्या कल रात साया कोई?
इधर शब से लेकर सहर तक एक आहट सोने नहीं देती,
उधर भी हुई थी क्या कल रात आहट कोई?
ये सब तुम्हारी आंखें कह रही हैं,
कल रात तुम भी सोये नहीं
ओझल सी हैं आज आंखे तुम्हारी।।
(रवि कैंतुरा)
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